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वंदना टेटेः प्रतिनिधि कविताएँ

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वंदना टेटे की चुनी हुई कविताओं का प्रतिनिधि संकलन

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Vandna Tete Pratinidhi Kavitayen
पुरखा संगीत सी बजती कविताएँ

वंदना टेटे ने आदिवासी साहित्य की वैचारिकी को नई दिशा और पहचान देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनकी सोच ‘रचाव और बचाव’ की अवधारणा पर आधारित है, जिसमें आदिवासी साहित्य को केवल सृजनात्मक अभिव्यक्ति ही नहीं, बल्कि अपनी संस्कृति, परंपरा और अस्तित्व की रक्षा का माध्यम भी माना गया है। उन्होंने आदिवासी साहित्य को आदिवासी जीवन-दर्शन से जोड़ते हुए यह प्रस्तावित किया कि आदिवासी विमर्श तभी सार्थक हो सकता है जब वह उनके सांस्कृतिक मूल्यों और दर्शन को केंद्र में रखे।

वंदना टेटे की कविताएँ वर्चस्वशाली काव्य-परंपरा के प्रतिमानों को अस्वीकार करती हैं। वे किसी हिन्दी मुहावरे या रूढ़ सांचे का अनुकरण नहीं करतीं। उनके पास कहने को अपनी बात है और अपना भाषिक लहजा। इसलिए उनकी काव्याभिव्यक्ति में विविधता है। वे अपनी जड़ों से जुड़ी रहकर हिन्दी में सृजनशीलता का परिचय देती हैं। सौंदर्य का बखान करने के लिए उन्हें किसी बाह्य रूपकों की आवश्यकता नहीं पड़ती है, बल्कि वह अपनी परम्पराओं से जुड़ी चीजों में से ही रूपकों का निर्माण करती हैं।

उनकी कविताओं में भूमंडलीकरण और विकास के नाम पर आदिवासी जीवन पर हो रहे आघात की तीव्र आलोचना मिलती है। जैसे, “डोम्बारी पहाड़ पर ए संगी रियो रियो” जैसी पंक्तियाँ आदिवासी गीतों की संगीतात्मकता और संघर्ष की गूंज को साथ लेकर चलती हैं। कविताओं में खड़िया भाषा के शब्दों का सहज और स्वाभाविक प्रयोग हुआ है। ‘रासे-रासे’, ‘लसय-लसय’, ‘रियो-रियो’ जैसे शब्द उनकी कविताओं को एक अनूठी ध्वनि और लय प्रदान करते हैं। यह भाषा उनकी कविताओं को न केवल प्रभावशाली बनाती है, बल्कि आदिवासी गीत-परंपरा से जोड़ती है और आदिवासी जीवन-दर्शन के सहअस्तित्व व सहजीविता की परंपरा का पुरखा गान गाती हैं। उनकी कविताओं में आदिवासी युद्धों की स्मृतियाँ और उलगुलान की ध्वनियाँ हैं।

वंदना टेटे की कविताएँ बिना चिल्लाए, रोए और ‘विक्टिम’ बने हिन्दी साहित्य में आदिवासी दृष्टिकोण और सांस्कृतिक विविधता को समृद्ध करती हैं।

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